Friday, June 20, 2008

चाहता हूँ

उजड़ी हुई बस्तियों में आशियाना बनाना चाहता हूँ,
ऐ दोस्त मैं तेरी महफिल में आज आना चाहता हूँ !

मयकशी की नहीं तमन्ना मुझको,
पर आज एक जाम उठाना चाहता हूँ !

नाकाबिल -ऐ- बरदाश्त हो चुकी है तपिश जिंदगी की,
कुछ लम्हा किसी की जुल्फों तले सुस्ताना चाहता हूँ !

कब से उजाड़ पड़े ज़िंदगी के इस चमन में,
कुछ दरख्त मोहब्बत के लगाना चाहता हूँ !

वक्त की बेरहमियों से उजड़ी एक महफिल में,
मैं आज फिर एक साज सुनाना चाहता हूँ !

उजड़ी हुई बस्तियों में आशियाना बनाना चाहता हूँ,
ऐ दोस्त मैं तेरी महफिल में आज आना चाहता हूँ !

3 comments:

Abhinav Agarwal said...

ek dum mast hai ..........
pad ker maza aa gaya ........
"Shyaar Gopesh" ko mera salaam ...
Aise hi naam kiye jao Gopesh ....

Kafi wajandaar lines hain ....

Vaishali said...
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Vaishali said...
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