Friday, May 25, 2012

एक शाम तनहा सी मेरे घर में उतर आई है 
और शब के अँधेरे मुझे निगलते जाते हैं

हर सू फैली है एक उदासी की चादर  
और दिल में कुछ ख्वाब पिघलते जाते हैं

कुछ समझ नहीं आता कि हुआ क्या है
क्यों सारे रिश्ते हाथों से  फिसलते जाते हैं

बढती जाती है खलिश सीने की हर रोज़
दरख़्त एहसासों के दिल में दरकते जाते हैं

ना जाने कितनी दूर और चल सकूंगा ऐसे
मंजिल के निशान आगे को सरकते जाते हैं

तू लुटा रहा है अपनी रहमत का दरिया गैर के घर
और हम हैं कि एक एक बूँद को तरसते जाते हैं

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